नज़्म उलझी हुई है सीने में, मिसरे अटके हुए हैं होठों पर
उड़ते-फिरते हैं तितलियों की तरह, लफ्ज़ कागज पे बैठते ही नहीं
कब से बैठा हुआ मैं जानम, सादे काग़ज़ पे लिखके नाम तेरा
बस तेरा नाम ही मुकम्मल है, इससे बेहतर भी नज़्म क्या होगी………..!
– गुलज़ार
नज़्म उलझी हुई है सीने में, मिसरे अटके हुए हैं होठों पर
उड़ते-फिरते हैं तितलियों की तरह, लफ्ज़ कागज पे बैठते ही नहीं
कब से बैठा हुआ मैं जानम, सादे काग़ज़ पे लिखके नाम तेरा
बस तेरा नाम ही मुकम्मल है, इससे बेहतर भी नज़्म क्या होगी………..!
– गुलज़ार
आह ! क्या बात है.
बस तेरा नाम ही मुकम्मल है, इससे बेहतर भी नज़्म क्या होगी………..!
लाजवाब.
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